Monday 4 April 2011

संस्कारित-कल्पतरु

   तीन तरह के आदमी
इस दुनिया में होते हैं, तीन तरह के आदमी,
एक ‘उ’ उल्लू की मात्रावाला ‘बुद्धू’, पागल, विक्षिप्त |
जिसे सुख-दुख, जीत-हार, लाभ-हानि, कुछ समझ नहीं आता,
इसीलिए वह हर हाल में, अपने को मस्त पाता |
दूसरा वह जो ‘बुद्धू’ से ‘उ’ उल्लू की मात्रा को,
अपने विवेक से हटा ‘बुद्ध’ हो जाता |
सब कुछ जान जाता,
इसीलिए अपने को हर हाल में सम पाता |
और तीसरा वह जो ‘बुद्ध’ की भी ‘उ’ की मात्रा,
अपनी टेढ़ी अकल लगा हटाता,
और केवल ‘बद्ध’ रह जाता |
बस चलता ही जाता, चलता ही जाता,
और कहीं भी नहीं पहुँच पाता |



    शादी
शादी,
दो दिलों का सम्बन्ध,
आत्माओं का मिलन,
प्यार के धागों का बन्धन,
न शिकवा, न शिकायत, न कोई प्रश्न,
यह तो है बस पूर्ण समर्पण |
या फिर,
आधिपत्य, अधिकार,
लेन-देन, एक व्यापर |
मार-पीट, जीत-हार,
झगड़ा-फसाद, एक तकरार ?
या,
बस एक समझौता ?
या,
किसी भी खूंटे से बाँधा हुआ,
एक सामाजिक बन्धन ?
 सांप्रदायिक-दंगे
नगर की हर डगर,
गली, कूचा व नुक्कड़,
हो रहे थे सांप्रदायिक दंगे |
मैंने भी उठाई तलवार,
मार-काट को तैयार |
इतने में मैंने देखा, कि
सामने कुछ ही दूरी पर,
मेरे ही जैसा एक और व्यक्ति,
ले हाथ में तलवार,
मरने-मिटने को तैयार,
मेरी तरफ बढ़ रहा था |
मैं उसकी तरफ दौड़ा,
वह भी मेरी तरफ दौड़ा |
मैंने उसकी आँखों में, एक अजीबो-गरीब,
उन्माद व घृणा के बादलों को उमड़ते देखा |
मैंने उसके चेहरे पर हैवानियत को तांडव करते देखा |
मैंने घबरा कर उसे मारने को अपनी तलवार उठाई |
उसने भी मुझे मारने को अपनी तलवार उठाई |
मैं थोड़ा और उसकी ओर बढ़ा,
वह भी थोड़ा और मेरी ओर बढ़ा |
अब हम एक-दूसरे के एकदम आमने-सामने थे,
बस बीच में सियासत का आइना भर था |
मैं अपने ही प्रतिबिम्ब से लड़ रहा था |

मानवता जिन्दा है
जंगल कट रहे हैं,
हरियाली घट रही है,
मरुस्थल बढ़ रहे हैं,
फूल फिर भी खिलते हैं,
बहारें फिर भी आती हैं |

गंदगी बढ़ रही है,
बदबू फ़ैल रही है,
प्रदूषण के बादल छ रहे हैं |
सूरज व चाँद फिर भी उगते हैं,
मेघ फिर भी आते हैं,
आसमां में छाते हैं,
खुशहाली बरसते हैं |

लूट-खसोट, मारकाट,
हर तरफ फैला है आतंकवाद, जंगलीराज |
फिर भी किसी मरीज को इंजेक्शन लगाना हो, तो –
बन्दूक चलानेवाले हाथ कांपने लगते हैं |
ह्रदय में अन्दर, कहीं दूर ही सही,
मानवता जिन्दा है |

 भावों का दर्पण    
छुपा लो चाहे जितना मन में,
छुपा नहीं पाता है चेहरा |
दिल का हाल बता देता है,
भावों का दर्पण है चेहरा |

शांत, गंभीर जो होता चेहरा,
सागर सा लगता है गहरा |
भावनाओं से नयनों में, तब –
प्यार सा उमड़े तूफां गहरा |

उलझा माथा रेखाओं में,
सिकुड़ापन चिंता बतलाती |
गुस्से सी भौहें जब उठती,
लाल-लाल हो आँख दिखाती |

भाव-विभोर होंठ हिलते, पर –
शब्द न कोई बाहर आता |
पवित्रता सा पावन जल, बन-
प्रेम-अश्रु, नयन छलकता |

दुःख सी नाक सिकुड़-सिकुड़ कर,
गम को अन्दर-अन्दर पीती |
झरनों जैसे नयनों से यह,
आँसू बन झर-झर ही बहती |

खुशी से प्रस्फुटित होंठ जब खुलते,
मुस्कान बन गालों पर खिलते |
गुदगुदी से नरम गालों पर,
अट्हास आँसू बन दीखते |

कोमलता से नाजुक होंठ,
प्यार का जाम जब टकराते |
शर्म सी पलकें, झुक मदहोश हो,
प्यार लुटते, प्यार लुटाते |

        वट-वृक्ष
[कोलकाता के ‘बोटनिकल गार्डन’ में ४५०वर्ष
पुराने वट-वृक्ष से प्रेरणा पा लिखी गई कविता]
प्रश्न:-
ऐ वट-वृक्ष, ऐ वट-वृक्ष,
तू इतना विशाल, कितना वृद्ध ?
कितने इतिहास समेटे तूने,
कितनी संस्कृतियों से समृद्ध ?
फिर भी तू न थका रुका,
युवाओं सी तुझमें ललक |
आज तुझे बतलाना होगा,
क्या है इसके पीछे रहस्य |
ऐ वट-वृक्ष .........
उत्तर:-
ऐ नव-पीढ़ी के युवक,
मैं दिल से जवान, वय से वृद्ध |
कई इतिहास, क्रान्तियाँ देखी,
पर बना न मैं इतिहास अभी तक |
क्योंकि मुझमें बनी रही,
परिवर्तन की हरदम तडफ़ |
जब भी नई पीढ़ी आई,
उसने एक बदलाव दिया |
रूढ़िवादी नहीं रहा मैं,
परिवर्तन स्वीकार किया |
हर नए मोड़ पर देखो मैंने,
नई जड़ों को जन्म दिया |
हर बदलाव, एक इतिहास,
तना बन गई फिर वह जड़ |    
जिसने बढ़ कर मुझे किया,
पहले से भी ज्यादा सशक्त |
इसीलिए मैं जिन्दा हूँ,
नहीं मरा बस यही रहस्य |
ऐ नवयुवक, ऐ नवयुवक |

       संस्कारित-पौधा
बच्चा होता, जैसे छोटा कोमल पौधा |
बढ़ता अपनी ही मस्ती में, अपनी ही वह धुन में होता |
लेकिन जग को नहीं पसंद, उसकी मस्ती उसकी धुन |
उसे उसकी जग-जननी से उखाड़,
रोपा सामाजिक गमले में,
अपने-अपने मज़हब की मिट्टी डाल |
फिर जैसे-जैसे बड़ा हुआ,
शुरू हुआ उसको देना एक विशेष आकार |

कुछ अनचाही डालों को काटा,
कुछ मनचाही को बाँध दिया |
जिसे चाह जैसे मोड़ दिया,
जो थी पसंद उन्हें छोड़ दिया |
जिसे बढ़ना दिव्य ऊँचाई था,
उसे हमने स्वार्थवश रोक दिया |

उसकी जड़ों को भी हमनें,
काटा-छांटा बढ़ने न दिया |
जो बढ़ना चाहती थी अपने, चेतन की गहरे में,
उसे सुन्दर, आकर्षक, चपटे गमले की उथली मिट्टी में,
कुछ बाहर दिखलाने को, कुछ अन्दर जिन्दा रखने को,
ऐसे ही बस छोड़ दिया |

उसमें जो भी छोटे-छोटे, फल स्वार्थ के शोभित होते,
नहीं किसी भी काम के होते |
उसमें वे परमार्थ के फल, जो सभी को तृप्ति देते,
नहीं कभी भी फलित हैं होते |

ऐसे हमने वह पौधा, जो ऊपर बढ़,
भव्य, दिव्य हो सकता था |
ऐसे हमने वह पौधा, जो अन्दर बढ़ गहराई में,
अपने चेतन से जुड़ सकता था|
ऐसे हमने वह पौधा, जिसके फल,
इस जग में बहुतों को तृप्ति दे सकते थे |
उसे हमने अपने स्वार्थ की खातिर,
बना दिया एक ‘बोनसाई’ बस बौना सा |
फिर उसे औरों को दिखाने,
बस अपनी ही तारीफ़ पाने,
‘ड्राइंगरूम’ में सजा दिया |

 मानव-संस्कृति
सबकुछ नष्ट हो रहा आज,
बन मानव मस्तिष्क विकृति |
संजोकर रख सकें यदि कुछ,
तो रखें मानव-संस्कृति |

नदियाँ सूखी, कुँए प्यासे,
आसमान बादल को तरसे |
मरुभूमि से जंगल देखो,
पहाड़ मन पर बोझ भर है |
क्या यही है मानव-प्रकृति |
सब कुछ ............

ऊँचे सपनें, ऊँची बातें,
ऊँची बना रहा ईमारतें |
छोटा दिल, तुच्छ भावनाऐ,
कुंठित, कुत्सित, कलुषित तन-मन |
क्या यही है मानव-उन्नति |
सब कुछ ...........

करुणा से लिपटा नंगापन,
क्रंदन करती सूखी आँखें |
कृषकाय, भूखा कोलाहल,
बहरा न्याय, जुबां पर ताले |
प्रगति, शिक्षा, खुशहाली से,
शब्द सभी लगते बेमानी |
कैसे संस्कार, कैसी प्रवृति |
सब कुछ ...........

मन के अरमाँ टूट रहे सब,
सोते सपने, धूमिल कल्पना |
रुखा मन, खोखला मस्तिष्क,
कब्रिस्तान बना हर घर है |
कैसी रचना, कैसी आकृति |
सब कुछ ............

दिलो-दिमाग उमड़ने दें,
तन-मन आज घुमड़ने दें |
सूखे में अमृत-पानी सा,
प्यार आज बरसने दें |
संवेदना, सद्भाव बढ़े,
फैली हो हर तरफ खुशी |
ऐसी आज हो मानव की कृति |
तभी संजोकर रख सकेंगे,
हम अपनी मानव-संस्कृति |
सब कुछ ............



        नौटंकी दुनिया –  कठपुतली जीवन


दौड़ा-भागी ,आपा-धापी ,रेलम-पेल ,धक्कम-धक्का |
धमा-चौकड़ी ,हाथा-पाई ,भागम-भाग ,भीड़-भडक्का |
तू-तू ,मैं-मैं ,बक-बक ,झक-झक ,उठा-पटक ,लटका-झटका |
कूद-फांद ,धींगा-मस्ती ,अफरा-तफरी ,धक्का-मुक्का |
छिना-झपटी ,मारा-मारी ,उछल-कूद ,धूम-धड़क्का |
हडबड नौटंकी दुनिया में ,जीवन बना इक कठपुतली सा |

 संग-संग जीलें
आओ! संग-संग हम जीलें,
जीवन का हर लम्हा जीलें |

उठा फेंक नीव के पत्थर,
बना रहे क्यों ताश का महल |
जो हवा के झोकों से ढह जाता,
पानी के छीटों से जाता गल |
आओ! प्यार-महब्बत की सीमेंट से,
नीव के पत्थर से अब जुड़ लें |
आओ!..........

युवा-बुढ़ापे की उम्र का फरक |
पहला उत्साहित रहा जोश झलक |
दूसरा शांत, अनुभव शीतल |
अनुभव की पैनी सूई में,
युवानी की डोर डाल,
आओ! अब यह अन्तर सीलें |
आपस में जुड़ साथ में जीलें |
आओ!.........

दोनों ही की सोच में अन्तर,
रेल की पटरी सा समान्तर |
आओ! रेलगाड़ी बन कर,
जीवन-पथ पर साथ में चल कर,
यह सफ़र सुहाना हम तय कर लें |
यादगार इसको हम कर लें |
आओ!.........

एक प्याला, एक पीनेवाला,
जिस प्याले से पीया उसी को,
पीनेवाला क्यों तोड़ रहा ?
कल होश आएगा, पछताएगा,
हाथ मलते तब रह जाएगा |
क्यों न मधु प्यार का पीलें |
मधुशाला बन साथ में जीलें |
जीवन की सब मदिरा पीलें |
आओ!.........

       विचार
तिजोरी में इकट्ठे किये धन से, हर मन होते हैं विचार |
कुछ पैत्रिक सम्पति से, वे आते बन संस्कार |
कुछ सिक्के अनुभव के, कुछ भावनाओं के कलदार |
इन सबसे ही चला रहे, हम अपना कारोबार |
स्वजनित से कभी भी कुछ नहीं होते विचार |
पर जब भी हम अपना कुछ जानते,
तो हो जाते हैं शांत, मौन, एकदम निर्विचार |
      खुदा जाने  
कागज के फूलों से सजे हैं जो घर-आँगन,
प्यार खिले वहाँ कैसे, खुदा जाने |

इत्र की खुशबूओंसे जो कर रहे मोहित,
प्यार महके वहाँ कैसे, खुदा जाने |

मरुस्थल से साफ़-सुथरे दिखाते जहाँ सभी,
प्यार उपजे वहाँ कैसे, खुदा जाने |

खोदते हैं जहाँ जड़ें दूसरों की सभी,
प्यार पनपे वहाँ कैसे, खुदा जाने |

जहाँ कमियाँ ही दूसरों की ढूंढती है निगाहें हरदम,
मोगरा गुलाब बने कैसे, खुदा जाने|

कलियाँ ही नोचने में लगे हैं जहाँ सभी,
जिंदगी फलीभूत हो वहाँ कैसे, खुदा जाने |
          कारवाँ
[इस कविता में उपयोग किये करीब-करीब
    सभी शब्द ‘क’ से शुरू होते हैं]
किलकारी से काल, कब्र कहलाता कारवाँ |
कट-कट करता काल-चक्र है कारवाँ|
कल-कल करता काल-चक्र है कारवाँ |
  प्रथम पड़ाव – बचपन
किल-किल किलकारी करता कारवाँ |
किसलय, कोमल, कोपल, कलरव कारवाँ |
केशव, किशोर, कुमार, कुवांरा कारवाँ |
कच्ची कली से कुसुम कहाता कारवाँ |
कागज़, कलम, किताब व कक्षा कहाता कारवाँ |
कोमल-कोमल कुछ-कुछ कच्ची कचनार सी कामना |
कट-कट करता ...............
  द्वितीय पड़ाव – जवानी
काले केश, कोमल कपोल, कजरारे कटाक्ष कहाता कारवाँ |
करता किसी कोमलान्गना का कायल कभी ये कारवाँ |
कसमस करते कुवांरेपन की कल्पना का कारवाँ |
कभी केवल कामिनी की कामना ही कारवाँ |
कहर करते कमसिन के कुवांरेपन की कामना |
कट-कट करता ...........
   तृतीय पड़ाव – कर्मक्षेत्र    
कभी कल्पना, कभी कोशिश, कभी कशमकश, कभी कष्ट |
कभी कुछ न करने की कड़वाहट, कभी कुछ करने की कसक |
कभी कुर्सी, कभी कारोबार करने को कटिबद्ध |
कभी काठ सा कठोर, कभी कमल सा कोमल |
कभी कमरबंद सा कसाव, कभी करधनी की करतल |
कभी कौवे की काँव-काँव, कभी कूह-कूह करती कोयल |
कभी केवल कोरा कागज कहाया कारवाँ |
कथनी क्या व करनी क्या है कारवाँ |
क्या-क्या करूँ, कैसे करूँ, काम-चक्र ही कामना |
कट-कट करता ...........
     चतुर्थ पड़ाव – बुढ़ापा
कल करूँगा, कल करूँगा, कहते-कहते कुम्हलाई कोमल काया |
क्या-क्या किया पर कभी भी किसन-कन्हैया ना किया |
कल-कल करते-करते, काया कहलाई कंकाल |
व काया का कलेवा कर कारवाँ कहलाया काल |
फिर कफ़न, कब्र, व कहानी-किस्सा कहाया कारवाँ |
कट्टर, कठोर काल की, नहीं किसी को कामना |
कट-कट करता ................
    पाँचवा पड़ाव – कुछ प्रश्न
क्या कभी कीचड़ में कमल सा कहला पाए हो ?
क्या कभी कोहरे में किरण का कुछ कर पाए हो ?
क्या कभी कबीर की कथनी सा कुछ कह पाए हो ?
या केवल कीड़े सा कुलबुलाता कारवाँ ही कहलाए हो |
या केवल कुकुरमुत्ता ही कहाया कारवाँ |
कायाकल्प करने की, की कभी क्या कामना ?
कट-कट करता ................
        एक विचार
  करो कुछ काम की कारवाँ कविता कहलाए |
कि कल-कल करती कविता, कण-कण का काव्य कहलाए |
किलंगी या कलश कहलाए केवल कारवाँ |
कल्पतरु या कंचन कहलाने की हो केवल कामना |
कट-कट करता ................

          रिश्ते
रिश्ते,
बड़े अजीबो-गरीब होते हैं ये रिश्ते,
कुछ जन्मजात माँ-बाप व औलाद के ध्रुव रिश्ते |
कुछ समाज के बाँहपाश में दबे तड़फते रिश्ते |
प्यार व तकरार के अनौखे रिश्ते |
जवानी व बुढ़ापे के तकरार के रिश्ते |
युवक-युवतियों के जवानी के उमड़ाव के रिश्ते |
हमारे-तुम्हारे, नए-पुराने, दोस्ती-दुश्मनी के हँसते-रुलाते रिश्ते |
कुछ अनकहे, अनजाने, अनचाहे रिश्ते |
कुछ अपंग, लड़खड़ाते, लंगड़ाते, घिसटते रिश्ते |
कुछ मानवीय संवेदनाओं के ‘सागर’ रिश्ते |
टूटी हुई डाल से न जुड़ते रिश्ते |
टूटे पत्तों से सूखे बिखरते रिश्ते |
लगी हुई गांठ से जुड़े रिश्ते |
कच्चे धागों से बंधे पक्के रिश्ते |
पक्के विश्वास से जुड़े कच्चे रिश्ते |
बड़े ही नाजुक काँच से होते रिश्ते |
मन के विचारों में लड़ते-झगड़ते रिश्ते |
नंगी तलवार पर चलते डरते रिश्ते |
आग की अंगार से आगिले रिश्ते |
जातियों की जंजीरों में जकड़े रिश्ते |
धर्म के ज्वालामुखी में धधकते रिश्ते |
यदि सुलझा सकें ये उलझते धागों से रिश्ते,
तो टूट-टूट बिखरते, संवर जाएँगे संवेदन रिश्ते |
वरना बस खण्ड-खण्ड खण्डहराते,
एक लकड़ी के गट्टों से रह जाएँगे रिश्ते |
जिन्हें टुकड़े-टुकड़े जोड़ बनाई समझौते की रस्सी से बाँध,
एक गट्ठर तो बना पाएँगे,
मगर एक कभी भी न कर पाएँगे |

     सम्बन्ध
जो रिश्ते समानता के आधार पर जुड़ बंध जाते हैं,
सम्बन्ध कहलाते हैं |
फिर समानता तन की हो, मन की हो या हो बस धन की |
नातों की हो, विचारों की हो या हो सिर्फ़ धन की |
बस दोनों हाथों से ताली बजने जैसे होते हैं ऐसे रिश्तों के बन्धन |   
वरना तू-तेरा, मैं-मेरा से हो जाते हैं ये सम्बन्ध |

जो रिश्ते होते हैं रास्ते के, सफ़र के,
होते बस सामयिक, जरूरत के,
संग-साथ कहलाते |

मगर जब रिश्तों का आधार नहीं होता जरूरत या समानता,
वरन् होता है बस केवल एकरसता,
दूध में शक्कर सा, हवा में महक सा, नदियों के संगम सा,
सम्पूर्ण स्वीकार,एकत्व |
जहाँ बस एक ही रहता, दूसरा नहीं होता,
वही कहलाता है सच्चा प्यार,
वही कहलाती है सच्ची मित्रता |

       श्रद्धा व विश्वास
विश्वास एक भ्रम एक धोका |
क्यों की वहीं कहीं अन्दर एक अविश्वास का कांटा भी होता |
मगर श्रद्धा की नाव में अविश्वास का छेद नहीं होता |
इसीलिए श्रद्धा व विश्वास का दूर-दूर तक कहीं,
कोई भी सम्बन्ध नहीं होता |
क्योंकि श्रद्धा तो है एक पूर्ण समर्पण,
जहाँ कोई झगड़ा-फसाद नहीं,
कोई शिकवा, शिकायत, तकरार नहीं,
जहाँ मैं नहीं होता, मेरा नहीं होता,
कोई सवाल कोई जवाब नहीं होता,
बस रहते हो तुम, सिर्फ़ तुम,
तब ही वह श्रद्धारुपी नदी सागर बन पाती है,
वरना,
बस विश्वास का,
एक गन्दा, बदबूदार डबरा बन रह जाती है |

       सामंजस्य
जहाँ होता सामंजस्य, जीवन होता वहीं सफल |
जितनी गहरी, फैली जड़ें, उतना विशाल, दृढ होता वृक्ष |
जिसने साधा मध्य से डमरू, वही साधता जीवन स्वर |
दूसरे छोर पहुँचे वही नट, जो साध बाँस चले रस्सी पर |
जीवन होता वही सफल, जहाँ होता सामंजस्य |

    अस्तित्व व व्यक्तित्व
मन सदा व्यक्तित्वगत जो व्यक्त हरदम |
चेतना अस्तित्वगत जो अस्त पर होती है हरदम |
व्यक्तित्व पोषित, संस्कारित, रहता परधि पर सदा |
अस्तित्व स्वभाव, नहीं निर्मित, केन्द्र पर रहता सदा |
व्यक्तित्व का लहलहाता पौधा जो इठला रहा,
अस्तित्व की गहरी जड़ों पर है टिका |
जो पौधा अपनी ही जड़ों से हो कटा,
वह कैसे पनपेगा सोचो जरा !
उसके फलने-फूलने की तो बात छोड़ो,
वह जीते-जी बेमौत ही समझो मरा |

         जीवन – सत्य
व्याख्या, विश्लेषण, सिद्धान्त किसी का, कर देता मृतप्राय उसे,
छुपे अज्ञात रहस्य में ही, होता शाश्वत जीवन है |
फूलों का विश्लेषण कर सब, तत्व, रसायन जान लिया,
पर उसका सौंदर्य, काव्य, रस, चैतन्य-भाव सब मार दिया |
चित्रकार का चित्र तोडकर, सब रंगों को जान लिया,
पर बिन आकृति, आकर्षण के, उसमें फिर वह भाव कहाँ |
जब चाँद पे जा उसको जाना तो उसमें चकोर सा भाव गया
,
जब प्रेम का विश्लेषण किया तो भाव गया बस ‘काम’ रहा |
सब जान लिया परमाणु तक और उसे मृतप्राय किया,
नेति-नेति अव्यक्त रहस्य ही, है अखण्ड एक जीवन सत्य |

         दान
 सच्चा दान कहलाता वही जो दूसरों को दे सकें हम,
वह जोकि हो हमारा |
तो सोचिए क्या दे सकेंगे दान में हम दूसरों को,
वह जोकि है हमारा |
साथ लाए थे नहीं कुछ, जब हम जनमें |
साथ ले जाएँगे नहीं कुछ, जब मरेंगे |
जो भी पाया यहीं से पाया,
वही तो हम दे रहे एक-दूसरे को |
जो कल था तुम्हारा, आज मेरा, होगा किसी और का कल,
बस चूका रहे हम आपस में, केवल अपने कर्मों का फल |
सोच-सोच सारे सोच प्याज के छिलकों से निकलते ही गए,
परत दर परत सब |
अन्त में कुछ न बचा, जो हो हमारा |
तब आई बात समझ कि –
दान केवल चोंचला है बस अहम् का |
होता यहाँ आदान-प्रदान, एक परिवर्तन,
जो है संसार का नियम,
और बस कुछ भी नहीं |
दान सा कुछ भी नहीं, दान सा कुछ भी नहीं |

     चुप और मौन  
ऊपर से लहलहाता, हरा-भरा, शांत, शीतल,
अन्दर से धधकता ज्वालामुखी,
चुप मगर नहीं मौन |
ऊपर कभी लहर, कभी तूफ़ान,
अन्दर से मगर, सागर सा सदा शान्त |
परिधि पर वैगित घूमता चक्रवात,
अन्दर मगर एकदम रिक्त, शून्य, खाली |
ऊपर से दुर्वासा, अन्दर से बुद्ध सा सदैव शान्त |
चुप नहीं, मगर मौन |

       शून्य व पूर्ण
शून्य व पूर्ण पर सदा से चलता आ रहा विवाद, भेद |
यदि काम लें हम अपना विवेक, तो यह है बस एक दृष्टि-भेद |
पूर्ण में पूर्ण जोड़ो या घटाओ योग केवल पूर्ण ही आएगा,
शून्य में शुन्य जोड़ो या घटाओ, शून्य ही रह जाएगा |
पूर्ण से पूर्ण का गुणा-भाग, पूर्ण ही लाएगा,
शून्य से शून्य का गुणा-भाग, शून्य ही कहलाएगा |
शून्य का जो है वर्तुल, वही कहाता पूर्ण है,
वर्तुल के अन्दर मगर बस शून्य है |
पूर्ण ही शून्य है, शून्य ही पूर्ण है,
बस यही एक सत्य है, बाकी सब भ्रम है |

    इच्छाओं की भूलभुलैया
अपनी ही उधेड़बुन की भूलभुलैया में फँसा,
हर बार मैं एक नया पथ लेता,
यह सोच कि इससे बाहर निकल जाऊँगा,
शैखचिल्ली सा बहुत खुश होता |
किन्तु,
मैं तूफ़ान सा अशांत व अस्थिर,
हरबार,
नई-नई लहरों में उलझा,
अन्तिम-अन्तिम कहता रहता |
मगर,
पूरी नहीं कभी भी होती,
मृगतृष्णा सी मेरी इच्छा |

उपकार का बदला
अकबार एक जवान आँखोंवाला इन्सान,
अन्धे, बूढ़े सूरदास से टकराया |
गुस्से में कुछ अपशब्द कहते हुए चिल्लाया,
देख कर नहीं चलता है,
क्या अंधा है ?
सूरदास बोले –
हाँ बेटा अंधा हूँ |
प्रभु ने जब मुझे दर्शन दिए,
व साथ ही दिव्य-दृष्टि भी दी,
तब मैंने वह दृष्टि यह कहकर लौटा दी, कि-
प्रभु आपके दर्शन के बाद,
अब कुछ भी देखने कि इच्छा नहीं है |
प्रभु ने लाख समझाया,
पर मैं न माना |
उनके ‘कुछ तो माँग’ के आग्रह पर ,
मैं बोला –
अच्छा आप ऐसा कीजिए,
इसे किसी ऐसे व्यक्ति को दीजिए,
जिसे इसकी सबसे ज्यादा जरुरत्त हो |
जब उन्होंने ‘तथास्तु’ कहा,
तो मैंने उनसे एक विनती की –
प्रभु कुछ ऐसा कीजिए, कि-
मैं उस व्यक्ति को जान सकूँ,
जिसे आप यह दृष्टि दें,
पहचान सकूँ |
प्रभु बोले - ठीक है |
हे ! वत्स,
जब कोई तुम से टकराए,
गली दे, अंधा कहे,    
व तुम्हें ही दोषी ठहराए,
तो समझ लेना, कि –
यही वह व्यक्ति है,
जो तुम्हारी ही दी हुई दृष्टि से देख रहा है,
और तुम्हारे उपकार का बदला,
गाली देकर दे रहा है |    

   अच्छाई
अच्छाई,
एक ऐसा कर्म,
जो किसी घटना की तरह,
एकदम समाचार नहीं बनता |
आकाश में बिजली सा,
क्षणिक नहीं चमकता |
बल्कि, जिसकी चमक,
सूर्य की आभा सी,
सदैव-सदैव के लिए,
होती है दैदीप्यमान |
और हो जाती है स्थिर,
ध्रुव के समान |

युद्ध
युद्ध,
एक वीभत्स दृश्य,
जो होता है ज्यादातर,
नासमझी व अहंकारिता का दुष्कृत्य |
जिसका दुष्परिणाम,
दूसरों को भुगतना पड़ता है,
कड़वा है, मगर यही है सत्य |
युद्ध,
सिर्फ़ मौत करती है तांडवनृत्य,
बाकी सभी करते हैं सिर्फ़ कोलाहल |
अपना डर छुपाने के लिए,
हौसला बढाने के लिए |
युद्ध,
जो सिर्फ़ देता है विधवा को आँसू,
रोते-बिलखते अनाथ बच्चे,
बेसहारा बूढ़े माँ-बाप,
खोखली अर्थ-व्यवस्था,
भूख, गरीबी, नंगापन |
युद्ध,
जो दूसरों के लिए बन जाता है तमाशा,
लेते हैं सब जिसका मजा,
और, लग जाते हैं,
अपना-अपना उल्लू सीधा करने,
बन्दर-बाट करवाने |
युद्ध,
जो होता है एक वहशीपन, पशुता,
हो जाता है जिसमें,
मानव का दानवीकरण |
जिसमें, अपने भी बदल जाते हैं,
और रह जाता है, सिर्फ़-
शक व परायापन |
युद्ध,
जिसका भरपूर फायदा लेता है नेता |
राष्ट्र-पुत्रों की बलिवेदी पर,
अपने वोटों की रोटी है सेकता |
इसे किसी से कोई हमदर्दी नहीं,
कोई मतलब नहीं |
मतलब होता है तो सिर्फ़ व सिर्फ़ अपनी कुर्सी से |
आज,
हम अपने मन में झाँकें,
व पूछें,
क्या हमें चाहिये युद्ध ?
जिसकी हर साँस में होता है,
भय, विलाप, चीख व खोखलापन |
या चाहिए,
प्रेम, खुशी, उत्साह, उमंग व अपनापन |
और हाँ,
कायरता नहीं कहलाती सुख-शान्ति से जीना,
बल्कि, वह तो है ,
हर रोज डर-डर कर मरना |
और ,
सही युद्ध है,
स्वयं का स्वयं के विकारों से लड़ना |
यदि,
जीत जाएंगे हम यह युद्ध,
तो सबकुछ पा जाएंगे,
और,
कायर नहीं,
भगवान कृष्ण की तरह,
महायोद्धा बन जाएंगे,
व,
राजा नहीं, महाराजा कहलाएंगे |

     अनन्त–यात्रा 
जीवन है एक पथ और मौत है एक विराम |
एक ऐसा मुकाम,
जहाँ जीवन रुकता सा लगता है,
एक पल करने को विश्राम |
और फिर सूर्य की तरह,
हर सुबह निकाल पड़ता है उस पथ,
जो है अखण्ड, अनन्त व अनवरत |
एक नई आशा किरण के साथ,
अपने प्रियतम से मिलने की लिए आस |
चलता ही रहता है उस पथ,
अथक, निरन्तर |

        पचास पैसे की शान्ति
मैं ‘चित्त को कैसे शान्त करें’ विषय पर आयोजित शिविर में गया |
योग, ध्यान, प्रवचन, प्रार्थना, आत्मावलोकन, नियमित जीवन,
इन सभी का पूरे नौ दिन अभ्यास किया |
चित्त जैसे एकदम शान्त हो गया,
काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ, अहंकार का मानो अन्त हो गया |
जीवन क्या, क्यों, कैसे जीना ?
ऐसा लगा समझ गया |
शिविर समापन पर जब रिक्शा से लौट रहा था,
ऐसा ही जीवन जिऊँगा हरदम, सोच रहा था |
इतने में रिक्शावाले ने ‘ब्रेक’ लगाया,
मेरे विचारों का सिलसिला थोड़ा डगमगाया |
इतने दिनों बाद अपना घर देख मन हर्षाया |
मैंने रिक्शावाले को दस का नोट थमाया |
उसने मुझे पाँच का एक सिक्का लौटाया |
मैंने उससे पचास पैसे और देने को कहा –
बोला, आश्रम से यहाँ तक का साढ़े चार रुपये होता है किराया |
वह बोला पाँच होता है |
मुझे उसके झूँठ बोलने पर बहुत गुस्सा आया |
बहुत तू-तू, मैं-मैं के बाद उसने पचास पैसे का एक सिक्का लौटाया |
मैं अपनी इस विजय पर मन ही मन मन्द-मन्द मुस्कराया |
घर आकार सोचा तो मैंने,
अपने चित्त की शान्ति को,
पचास पैसे का पाया |

      स्वभावगत गुलाब  
मैंने गुलाब से पूछा- तुझमें इतने काँटे हैं,
फिर भी तू फूलों से लदा हर मौसम में मस्ती से झूमता |  
क्या तुम्हें इन काँटों से आत्मग्लानि नहीं होती ?
क्या तुम्हें इन्हें हटाने की चाहत नहीं होती ?
वह बोला- हम स्वभावगत बीज-रूप से जो हैं,
वैसे ही अंकुरित होते हैं, वैसे ही बढ़ते हैं |
वैसे ही खिलते हैं, वैसे ही मस्ती में झूमते हैं |
हमें जितने फूल उतने ही कांटे भी प्यारे होते हैं |
हमारे लिए दोनों ही एक समान, कोई भेद नहीं |
हमें कोई और पौधा बनने या फूल उगाने की चाह नहीं |
हमें जिन्हें तुम कांटे कहते हो, हटाने की तमन्ना भी नहीं |
क्योंकि हमें संस्कारित करने वाला –
न ही कोई पंडित, मुल्ला, पादरी न ही कोई नेता |
हम जो हैं, जैसे हैं, उसी में आनन्दित रहते हैं |
प्रभु का आभार मान की हमें मनुष्य नहीं बनाया,
उन्हें हरदम धन्यवाद देते हैं |

 कृष्ण न जाने कहाँ खो गया ?
जिसको भी कृष्ण मिला वह अर्जुन जाग गया,
मर्यादित बाकी सब गफलत में, सपनों में |
जो समाज के नियमों से होते हैं शासित, कहलाते मर्यादित |
जो सत्य से आलौकित, होते हैं अनुशासित |
सत्य से रूबरू कोई होना नहीं चाहता,
इसीलिए रामायण पढते सब, बिरला ही कोई पढता गीता |

जब पराजय की डर से जीवन का महाभारत छोड़ हम चाहते हैं भागना,
जब सत्य को अस्वीकार कर सामाजिक तर्क व नीतियों से,
छुपाना चाहते हैं हम अपनी कायरता |
तो अनुशासित कृष्ण उसे नहीं स्वीकारता,
और हमें नपुंसक व कायर कह फटकारता |
जो हमारे अहम् के पत्थर पर सत्य का हथौड़ा मार, हमें चूर-चूर कर,
युद्ध में वापिस खड़ा करना चाहता |
हमें नहीं चाहिये ऐसा कृष्ण, नहीं चाहिये ऐसी गीता |
इसीलिए रामायण..............

जिसने अपने बाबा की बात आज्ञाकारी पुत्र की तरह न मान,
इंद्र न पूजवा गोवर्धन पूजवाया |
जिसने अपने बड़े भाई के तर्कों को सत्य की तलवार से काट,
सुभद्रा व अर्जुन का विवाह करवाया |
जिसने हजारों बंदी राजकुमारियों को छुडवा,
उन्हें समाज में उचित स्थान दिलवाने के लिए,
बिना अग्नि-परीक्षा सभी से विवाह रचाया |
जो बच्चों के अधिकार के लिए चोरी से भी न कतराया |
जिसने सत्य की खातिर अपने ही मामा को मारा |
जिसने सब मर्यादा तोड़ी, अहंकार का मटका फोड़ा |
जो हमारा भांडा फोड़े,
हमें नहीं चाहिये ऐसा कृष्ण, नहीं चाहिये ऐसी गीता |
इसीलिए रामायण..................

हमें चाहिये रासलीला में रमे कृष्ण बस,
इसीलिए सजाई हमने हर मन्दिर में,
प्रेममयी राधा-कृष्ण की मूरत |
हमें चाहिये लीलाओं का मनोरंजक बालक नटखट,
इसीलिए लड्डू दे बहला सकें,
ऐसे बालरूप लड्डू-गोपाल को बैठाया घर-घर |
हरि हो गए अब सीमित बस कथा-भागवत,
महाभारत का कृष्ण न जाने कहाँ खो गया |
जो हमें करे उद्वेलित,
हमें नहीं चाहिये ऐसा कृष्ण, नहीं चाहिये ऐसी गीता |
इसीलिए रामायण.................

धर्म
धर्म होता जैसे पहुँचाना पर्वत-शिखर पर |
जो भी पहुँचा वहाँ जिस भी दिशा से, बना अपनी राह एक,
युगपुरुष, अवतार कहलाया वही |
लेकिन बन लकीर के फकीर बाकी सभी,
बस लाठियाँ ही पीट रहे उस पथ |
शिखर भूल राह को ही धर्म समझ,
लड़ रहे आपस में सब, बस अहम् व स्वार्थवश |
पथ-पगडंडियाँ होती सभी की अलग-अलग,
पर शिखर तो होता केवल एक ही बस |

   मेरा घर  
मेरा घर दो कमरों का,
एक बाहर दूजा अन्दर का |
मेहमानों के लिए सदा,
बाहर का कमरा सजा हुआ |
अन्दर का कमरा पूर्ण रिक्त,
खालीपन से भरा हुआ |
हर आने वाले के अन्दर,
मैं स्वयं को ढूंढ रहा |
अन्दर जो असली ‘मैं’ हूँ,
उसको ही बस भूल रहा |

जो, नज़रों को कर्ता चकाचौंध,
वह एक झूँठ, परछाई है |
पर अन्दर जो ख़ामोशी है,
वह परम-शान्ति स्थाई है |

अन्दर का अमिट, अनन्त आनन्द,ही
केवल सच्चाई है |
बाकी सब कुछ नश्वर है,
धोखा है, हरजाई है |

      मन जैसे वातावरण
मन एकदम विशाल, खुला, स्वच्छंद, जैसे वातावरण |
हवा सी चलती कभी आँधी, कभी तूफ़ान,
कभी शान्त, कभी मन्द-मन्द, विचार-तरंग |
कभी स्वच्छ, कभी दूषित, कभी खुशबू,
कभी बदबू से भरा, जैसे पर्यावरण |
मन.........
सागर की लहरों सा कभी उठता, कभी घटता,
प्यार, घृणा, अपना व परायापन |
धरती सा कभी ज्वालामुखी, कभी भूकम्प,
और कभी माँ सा, पूर्ण समर्पण |
मन..........
कभी सूर्य सा उग्र, कभी तारों सा झिलमिलाता,
कभी चाँद सा शीतल, स्वभाव नरम-गरम |
कभी हवा में धुँए सी, धीरे-धीरे लुप्त होती धुंधलाती यादें,
कभी कोहरे सा उस पर पड़ा आवरण |
मन...........
जंगल सा कभी घना, कभी सूना, कभी उलझा,   
कभी भयानक, कभी रोचक, रोमांच से परिपूर्ण |
कभी जलप्रपात सा उफनता, कभी झील सा गहरा,
कभी नदी सा चंचल, दीवानापन |
मन..............
कभी बादल सा उमड़ाव, कभी बिजली सी चमक,
कभी बारिश सा भीगा, कभी ओस सा नम, भावुकपन |
मौसम सा कभी सर्द, कभी गरम, कभी बारिश,
कभी वसन्त व पतझड सा, होता जिसमें परिवर्तन |
मन.............
धरती के गर्भ में पड़ी, कच्ची-पक्की खदानों से,
कभी अच्छे, कभी बुरे, इरादे, अभिलाषा व आचरण |
कभी जमीन में खंडहरों व कई सभ्यताओं की तरह,
दबी, छुपी यादों, कामनाओं व घटनाओं का अनावरण |
मन..............
कभी पर्वतों से ऊँचे आदर्श, कभी फूलों-फलों से लदी झुकी भावनाएं,
कभी मरुस्थल सा वीरान, कभी श्मशान सा सूनापन |
कभी दिन व रात, कभी उजाले व अँधेरे की तरह,
अच्छाई व बुरे का चलता अनवरत, अनन्त रण |
मन...............

       बूंद की चाह
अनन्त सागर से उठ, बना मेघ |
जिससे निकली बूंद, नवजात एक |
निकाल पड़ी अपने पथ, बस चाह एक |
बनूँ कुछ ऐसा अनन्त, अखण्ड हो जिसका तेज |

बन्द सीप में मोती बन, नहीं चमकना |
चातक प्यास बुझा, अहम् को तुष्ट न करना |
फूलों-पत्तों पर इठलाती, ओस बूंद बन नहीं थिरकना |
माटी पर क्षणिक-छाप बन, काल-पदों से नहीं है रुन्दना |

चाह गिरूँ जब धरती पर, खो पहचान बनूँ जलधारा |
मिलूँ नदी में फिर जाकर, कहलाऊँ नदिया की धारा |
प्यास बुझती जन-जमीं की, आगे बढती ही जाऊँ |
यदि राह में बाँध रोक ले, बिजली बन प्रकाश फैलाऊँ |

पर निर्लिप्त प्रगति पथ बढती, गंगा में जाकर मिल जाऊँ |
पवित्र-पावनी, पापहारिणी, गंगा मैया ही कहलाऊँ |
सभी गन्दगी मेरे अन्दर, तेरी चाह से बनती निर्मल |
चाह मिलन की अन्तर-मन ले, तेज वेग से दौड़ी आऊँ |

आत्म-समर्पण, प्रेम-भाव जब, प्रियतम सागर देखेगा |
भाव-विभोर हो आलिंगन को, बाँह फैलाए दौड़ेगा |
तेरा बाहँपाश पाकर मैं, तेरे रंग में रंग जाऊँगी |
अपना अस्तित्व मिटा दूंगी, और सागर ही बन जाऊँगी |

       रसगुल्ले
रड़ा, उछाला दूध, मन को बहुत ललचाए |
चक्का जाम दही देख, लार टपक आए |
मथी, छोंकी छाछ, दिल की प्यास बुझाए |
जब बने चाय-कॉफ़ी, तो अलग रंग छाए |
ताजा निकला मक्खन, मिश्री संग भावे |
रड़-रड़ आँच पर, रबड़ी बन रिझाए |
जब तपे आँच पर तो, सार सा खोवा रह जाए |
पर जब फटे दूध तो, मन खट्टा हो जाए |
उससे जो पनीर बन, बाहर निकाल आए |
तो निराशा आशा बन, मन को गुदगुदाए |
सफलता के रसगुल्ले, वही जन खाए |

चंचल-मन
मन चंचल छोटे बच्चे सा,
उछल-कूद जो हरदम करता |
जितना जबरन इसको रोको,
जितना डाटो, जितना टोको,
उतना ज्यादा यह बिफरता |
लेकिन उस पर यदि ध्यान न दें,
देखें उसको बस दर्शक बन |
तो वह प्रथम बहुत भटकेगा,
मचलेगा व हठ भी करेगा |
लेकिन उसकी जब एक न चले,
शान्त-चित्त निश्चल बैठेगा |
मन चंचल...........

      अद्वितीय
हम पैदा हुए एक बीज से |
हमारा अपना पौधा, अपने फूल, अपने फल |
हम केवल हम, दूसरे नहीं हो सकते |
परमात्मा एक ही चीज दूसरी बार नहीं बनाता,
लेकिन हमारे संप्रदाय, गुरु, नेता,
हमें हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई आदि के ढाँचों में ढाल,
निर्जीव, मशीनी पुतलों सा बना,
अपना-अपना उल्लू सीधा करने में लगे |

      रिक्त – मन
अपने अन्दर उठ रहे विचार, मंसूबे, भावनाएँ,
घटी हुई घटनाएँ, आती है आने दो |
उन्हें मन-दर्पण में प्रतिबिम्बित आकृतियाँ बनाने दो,
और फिर मिट जाने दो,
लेकिन उन्हें अन्दर घर मत बनाने दो |

ऊपर कितना अशान्त, अस्थिर, विचलित दिख रहा,
पर अन्दर से गहन, गम्भीर, सागर शान्त बह रहा |
छोटी, बड़ी, तूफानी, लहरों सी विचारधारा,
ऊपर ही ऊपर उठे, उठ जाने दो,
लेकिन उन्हें अन्दर घर मत बनाने दो |

सूखा कुआँ बाल्टी खाली ही लौटा देता,
खाली ताल पत्थरों से लहरें नहीं छेड़ता |
सूखे ताल, कुएँ सा, मन को हो जाने दो,
फिर चाहे जो भी हो, हो जाने दो |
मन में उठ रहे विचार आते हैं आने दो,
लेकिन उन्हें अन्दर घर मन बनाने दो |

   दुःख तो होते खुशी के बीज
दुःख तो होते खुशी के बीज, छुपे हैं जिसमें लाखों गीत.
जीवन हार नहीं, है जीत, बना लो इसको अपना मीत |
दुःख तो होते...............
जमीं जिसकी हो दृढ़-विश्वास, डाल मेहनत की उसमें खाद,
बाकी छोड़ो प्रभु के हाथ, अंकुरित होगा निश्चित बीज |
दुःख तो होते...............
पौधे बनते ये हरे-भरे, लहराते उत्साह भरे,
रंग-बिरंगे फूल महकते, हवा छेड़ती है संगीत |
दुख तो होते...............
पंछी, भँवर सब गाते गीत,फूल से फल फिर बनता शीघ्र,
पके हुए फल गिरते निश्चित, पर अन्दर होते उनमें बीज |
दुःख तो होते...............

संग-संग जीलें
आओ! संग-संग हम जीलें,
जीवन का हर लम्हा जी लें |

उठा फेंक नीव के पत्थर,
बना रहे क्यों ताश का महल |
जो हवा के झोकों से ढह जाता,
पानी के छीटों से जाता गल |
आओ! प्यार-महब्बत की सीमेंट से,
नीव के पत्थर से अब जुड़ लें|
आओ.......
युवा-बुढ़ापे की उम्र का फरक |
पहला उत्साहित रहा जोश झलक |
दूसरा शान्त, अनुभव शीतल |
अनुभव की पैनी सूई में,युवानी की डोर डाल,
आओ!अब यह अन्तर सीलें |
आपस में जुड़, साथ में जीलें |
आओ..........
दोनों ही की सोच में अन्तर,
रेल की पटरी सा समान्तर |
आओ! रेलगाड़ी बन कर,
जीवन-पथ पर साथ में चल कर|
यह सफ़र सुहाना हम तय कर लें |
यादगार इसको हम कर लें |
आओ........
एक प्याला, एक पीनेवाला,
जिस प्याले से पीया उसी को,
पीनेवाला क्यों तोड़ रहा?
कल होश आएगा, पछताएगा,
हाथ मलते तब रह जाएगा |
क्यों न मधु प्यार का पीलें |
मधुशाला बन साथ में जीलें |
जीवन की सब मदिरा पीलें |
आओ..........

    संयुक्त-परिवार    
दो, तीन या अधिक पीढियों का रहना साथ-साथ,
कहलाता है संयुक्त-परिवार |
मुख्यतःचार तरह के होते हैं ऐसे संयुक्त-परिवार |

एक वह जो अमरुद की तरह,
जैसे बाहर वैसे ही, अन्दर से भी एक ही होता |
जिसके सभी बीज, परिवार-जनों की तरह,
प्यार के दल से, आपस में गुथे होते है,
व कभी भी अलग नहीं होते हैं |

दूसरा वह जो तरबूज की तरह,
ऊपर से अलग-अलग दिखता |
मगर अन्दर से, काले, सफ़ेद, भूरे बीजों से,
परिवार के सभी जन,
प्यार के लाल रंग के दल से आपस में जुड़,
बिना अपना अस्तित्व खोए,
एक मिठास भर देते हैं |
जिसके स्वाद से वे तो होते ही हैं,
दूसरे भी आनन्दित व तृप्त होते हैं |

तीसरा वह जो ऊपर से,
संतरे की तरह एक दीखता |
मगर अन्दर से अपने ही स्वार्थ के,
अलग-अलग दलों में बंटा, खटास भरा |
जहाँ सभी एक ही मकान में रहते तो हैं,
मगर आपस में कोई भी, प्यार का रिश्ता नहीं होता |

और चौथा वह जो सीताफल सा,
जितना बाहर से उतना अन्दर से भी,
अलग-अलग दलों में बंटा होता |
और जब भी उनके मतभेद,
सीताफल से ज्यादा पक जाते हैं,
तो उसमें दरारें पड़ जाती हैं |
जिससे अन्दर के सभी दलों की कहानियाँ,
बाहर से ही दीख जाती हैं |
तो क्या ऐसे जुड़े रहने का कोई अर्थ है ?
या इसके बजाय,
अलग-अलग अंगूर से, मगर एक ही गुच्छे में रहें |
जिसे देख कम से कम लोग,
एक ही गुच्छे के अंगूर तो कहें |

    सच्चा प्यार
सूर्य सी ऊष्मा, पानी सी ठण्डक,
फूलों सी खुशबू, हवा चंचल,
यदि महसूस करो तुम |
किसी का साथ, किसी की मुलाकात,
किसी की धड़कन, किसी का आभास,
यदि मससूस करो तुम |
दूर हो या पास, सच हो या ख्वाब,
किसी की याद, बस एक अहसास,
यदि महसूस करो तुम |
रात में तन्हाई, दिन में इन्तजार,
मिलने से जिसके, एक सच्चा करार,
यदि महसूस करो तुम |
तो यही वह प्यार,
जिसकी थी तुम्हें तलाश,
इसे न खोना कभी भी तुम |

        प्यार  
वस्तु नहीं होता है प्यार, न मालिकी न अधिकार,
न डरा न दौलत से, यह खजाना पा सकते |
प्रेम नाम लुटाने का, बस अपने को मिटाने का,
जो बदले में कुछ न माँगे, बस निस्वार्थ देना जाने |
चाहे विरह, चाहे मिलन, रहे ह्रदय में जो हरदम,
न व्याख्या न विश्लेषण, वहीं प्यार का सच्चा चमन |

    विवाह – एक यज्ञ
विवाह,
एक यज्ञ |
जिसमें दुल्हन जैसे लकड़ी,
दूल्हा होता जैसे घृत |
दोनों जलते साथ-साथ बन गृहस्थ |
जब पड़े त्याग की समिधा इसमें,
व प्यार के मन्त्र हों उच्चार |
तब चहुँ दिशा उजियारा होता,
खुशबू से भर जाता घर |
तभी सफल होता यह यज्ञ |
वरना कलह की ज्वाला जलती,
करते हुए सदा तड़-तड़ |
जिसका अहम्, स्वार्थ का धुआँ,
देता घुटन व नफरत बस |

   शब्दों की जंजीरें
शब्दों के पहाड़ तले दब गया है आदमी,
अक्षरों की जंजीरों में जकड़ गया है आदमी |
हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई, सभी धर्म,
पर इन शब्दों की आग में जल, लड़ रहा है आदमी |
जज, वकील, डॉक्टर, यंत्री और मंत्री,
इन शब्दों के जाल में फँस, जकड़ गया है आदमी |
माँ, बाप, भाई, बहन, पति, पत्नी प्यारे शब्द,
इन शब्दों के सम्बन्धों में बंध, सिमट गया है आदमी |
भारत, पाक, अमेरिका, व रूस जैसे शब्दों से,
देशों में धरती बटी, बट गया है आदमी |
तू-तेरा, मैं-मेरा, अन्धे शब्द, कीचड़ गहरा,
अहम् में कुलबुलाता, महाभारत कर रहा है आदमी |
यदि प्रेम का झरना बहे, फोड़ शब्दों का पहाड़,
तोड़ अक्षर की जंजीरें, आदमी हो अगर आजाद |
जैसे निर्भेद हवा व सूर्य का होता प्रकाश,
तो प्यार का ही रिश्ता होगा, चन्दन व पानी सा आज |
व दसों दिशाओं में गूँजेगा, प्रेम का उन्मुक्त नाद,
फिर कुछ न होगा सिर्फ़ होगा, आदमी बस आदमी |

       सफलता के फूल
आज हर आदमी पर एक अजीब सा तनाव, एक अजीब सा भार,
किसी पर परिवार, किसी पर समाज तो किसी पर देश का भार |
विद्यार्थी की पीठ पर पढ़ाई का भार,
अनपढ़ पर लदा गँवारी का भार |
कभी पति व पत्नी का दिखाऊ प्यार,
कभी प्यार भी होता बस एक करार |
कभी कोठे से आती बेबस झंकार,
कभी मालिक व नौकर का उबाऊ तकरार |
कभी काम का तो कभी बेकारी का भार,
कभी हार तो कभी जीत की खुमारी का भार |
पुरानी व नई पीढ़ी के बीच गहरी दरार,
जो कैसे भी पटने को नहीं तैयार |
हर हाल में आदमी पर बस भार ही भार |
फिर भी हर आदमी, सहन करता जी रहा जीवन की मार,
करता बहुत भागदौड़, उठापटक बारम्बार |
जब होते सब बेकार, बन्द पाता सब द्वार,
हो जाता लाचार |
लेकिन फिर भी जिसने हिम्मत न हारी,
समझो वह जीत गया जीवन की पारी |
सफलता के फूल खिलते हैं, जीवन की उसी डाली |

            सच्चा स्वरुप   
ईश्वर की बनाई हर चीज, उसके स्वाभाविक नग्न रूप में होती है सुन्दर |
चाहे पहाड़, नदी, चाँद-सितारे या हो जंगल |
यही सनातन सत्य, इसीलिए –
सच होता सदैव शाश्वत नग्न |
हम सदा सच से डारते, इसीलिए उसे छुपाते,
तन को वस्त्र, मन को कपट व बुद्धि को स्वार्थ के कपड़े पहनाते |
और स्वयं को अहम् का मुकुट पहना, झूठ के कवच से सजाते |
लेकिन झूठ के पाँव नहीं होते,
इसीलिए नंगा होने का डर सदैव बना रहता है अन्दर |
यदि इस अहम् की झूठी चट्टान को पिघला सकें हम,
तो वहाँ प्रेम का एक निर्मल, स्वच्छ, झरना बह सकता है सुन्दर |
जो है हमारा सच्चा स्वरुप, स्वभाव, असली सत्ता |
नहीं तो वही मृत-जीवन, जिन्दा-लाश, व-
मतलब का गोरख-धंधा |

      प्यार एक सौदा नहीं
प्यार वह जो सिर्फ़ देता, न कभी कुछ मांगता,
जो मांगता वह एक सौदागर, जो प्यार क्या नहीं जानता |
प्यार में गीला-शिकवा, लेन-देन होता नहीं,
वह कुछ भी हो सकता मगर, प्यार हो सकता नहीं |
सूर्य-चंदा, हवा-पानी, पेड़-पौधे, नदी-पर्वत,
निस्वार्थ ही दे रहे, सदा से ही वे हमें सब |
न भेजा उन्होंने बिल कभी, न की कभी शिकवा-शिकायत,
न ही कभी शर्तें रखी, क्योंकि करते सच्चा प्यार वे बस |
लेकिन हमनें तो सदा से, प्यार शर्तों पर किया,
उधेड़बुन में ही जिसके, जीवन यह पूरा किया |
प्यार क्या मरते-दम तक भी, न हम समझ सके,
अपने बुने जाल में ही, हम रहे सदा फँसे |
करते बच्चों की परवरिश, संस्कार का अंकुश लिए,
सिखाते जो कुछ उन्हें हम, अहम् तुष्टि के लिए |
एक पप्पी एक टॉफी, प्यार शर्तों पर कराते,
प्यार नहीं बल्कि उन्हें, स्वार्थ, चालाकी सिखाते |
अपनी इज्जत के लिए, उन्हें बन्दर सा नचाते,
प्यार की चाबुक दिखा, उनसे सब कुछ हम कराते |
उन्हें प्यार के फूलों के बदले, घृणा के काँटे दिखाते,
जब बड़े हो वे ऐसा ही करें, तो हम उन्हें दोषी बताते |
प्यार की ही राजनीति, करते घर में भी सभी,
झगड़ते हैं हम अक्सर, करें प्यार का नाटक कभी |
जो देखते वही सीखते, फिर दोष किसका है कहो,
इस प्यार के व्यापर की, कैसी विडम्बना यह प्रभो !
जवानी में प्यार भी, सोच कर हमने किया,
जहाँ सोच हो वहाँ प्यार का, कैसे जलेगा दीया |
शादी तक भी हम यहाँ, शर्तों पर किया करते,
सौदेबाजी देखिये, सात फेरे सात शर्तें |
और कहते प्यार के अब, कच्चे धागों में बंधे,
दो आत्माओं का मिलन या ये सब हैं गोरख-धंधे |
बुढ़ापे में चाहते ‘रिटर्न’, जो ‘इन्वेस्ट’ बच्चों पर किया,
यह तो शुद्ध सौदेबाजी, जहाँ प्यार ‘पेंशन’ सा हुआ |
बोते पेड़ बाबुल का, पर आम सभी हैं चाहते,
लेकिन जो बोया हमने, वही तो हम काटते |
यदि प्यार बोएँ, प्यार सीचें, प्यार ही की खाद दें,
तो प्यार का पौधा उगे व प्यार के फल-फूल पावें |

खिलोनों से रिश्ते
वासन्ती मास में फूलों से लदा पौधा महक रहा,
पतझड से बेखबर खिल रहा |
जिसे देख माली भी चहचहाता,
प्यार से उसे सहलाता,
एक अटूट प्यार का रिश्ता लहलहाता |
धीरे-धीरे वसन्त ढला, पतझड़ आया,
पुराने फूल मुरझाए, नया कोई खिल न पाया |
यह देख प्रगतिशील माली ने, उसे अधिभार बतलाया,
और फिर उसे उसकी जमीन से,अपने ही हाथों उखाड़,
बगीचे के बाहर फेंक आया |
फिर कभी पलट कर भी न देखा, न सोचा,
क्या खोया क्या पाया |
और एक अटूट प्यार का रिश्ता, खिलौने सा टूट गया,
मिट्टी का रिश्ता मिट्टी में मिल गया |

दीप-ज्योति प्रज्वलित हो गई
घर के अन्दर अन्धकार था,
बाहर तूफ़ा विकराल था |
दीपक, बाती-तेल भरा था,
करूँ प्रज्वालिक लेकिन कैसे, सोच रहा था |
माचिस की तीली जला, मई उसको सुलगा रहा था,
हवा-थपेड़ा लेकिन उसको, हर बार ही बुझा रहा था |
लेकिन मैं हिम्मत न हारा,
न थका, रुका, न ही घबराया |
बल्कि दुगने उत्साह से,
और अधिक आत्मविश्वास से,
अपने हाथों से उसको ढक,
बार-बार मैं जला रहा था |
करते-करते एक बार वह लौ सुलग गई,
दीप-ज्योति प्रज्वलित हो गई |

      प्यार एक समर्पण  
तिजोरी में बन्द उर्जा, घर-परिवार रही जला,
दिल में भरा प्यार का झरना, क्यों उसे बुझा नहीं पाता ?
क्यों रुपयों की खन-खन में,
उस प्यार के झरने की झर-झर कोई सुन न पाता ?
क्यों नकली फूलों से आकर्षित,
प्यार के फूलों की खुशबू नहीं कोई भी ले पाता ?
क्यों उन हरे-भरे पत्तों को, जिनके लिए जगह छोड़ी थी ,
सूखे पत्तों का स्वर अब खडखड कहलाता ?
शायद मेरी ही गलती सब,
शायद आग को गलती से, मैं उर्जा समझ रहा था |
शायद मेरा झरना ही दूषित था |
शायद मेरे बोने में ही गलती थी |
शायद इसीलिए यह हुआ, ऐसा लगता है |
इसीलिए अपनी गलती, आज मैं स्वीकार कर रहा |
उसकी सजा जो मुझे मिल रही, हँसते हुए स्वीकार कर रहा |
झर-झर झरते आँसू पीकर, सब कुछ ही मैं सहन कर रहा |
चाहे कुछ भी हो जाए, उफ़ ! तक भी ना करूँगा |
अपनी कुर्बानी देकर भी, उसको मैं जीवंत रखूँगा |

    कौन सी राह जाऊँ   
भादो की अमावस रात सा, मेरे मन-
छाया था घनघोर अन्धकार हर तरफ |
खड़ा था मैं अकेला जिस जगह,
सामने थी मेरे कई डगर,
जो बियाबान बीहड़ जंगल से भी थी बदतर,
भरे पड़े थे जिसमें आदमखोर जानवर |
समझ नहीं पा रहा किस राह मैं जाऊँ,
प्रकाश की एक किरण, जहाँ पर मैं पाऊँ |

एक राह पहुँचाती मुछाको उस शहर,
जहाँ सत्य व अहिंसा के घोड़े पर सवार,
खाड़ी का काय पर मजबूत कवच डाल,
आत्मनिग्रह व रक्षा की लाठी लेकर हाथ,
कर रहे मार-काट, भ्रष्टाचार, लूटपाट,
काँव-काँव चीखते, नोचते सफ़ेद कौवे |
देखकर ऐसे शूरवीर, घुडसवार,
आँखों से निकाल पड़ी, अश्रुओं की धार |
और फिर सब कुछ धुंधलाया,
छ गया हरतरफ घनघोर अंधकार |
खड़ा था मैं...........
एक राह पहुँचाती एक ऐसे शहर,
जो अमीरों का कहलाता महानगर |
उल्लुओं सा जागता रात में यह शहर,
सूरा व सुंदरी की भरमार हर तरफ,
सोने की लंका सी चौंधियाती चमक,
जो मेरी आँखों को कर रही बन्द बस |
और फिर छ गया हर तरफ अन्धकार |
खड़ा था मैं............
एक राह आश्रम व धर्म-स्थल ले जाती,
जो एक नई जीने की कला सिखलाती |
पंडित व मौलवियों की हर तरफ भरमार,
सभी की अपनी अलग-अलग होती चाल |
छोटी-बड़ी ऐसी कई, दुकानों के इश्तहार,
जो बेचते उजाला  पर, सबकी अपनी-अपनी,
ऊँची दर अलग-अलग |
जिसे देख घूमा सिर, आ गए मुझे चक्कर,
और फिर छा गया घनघोर अन्धकार |  
खड़ा था मैं.............
किस राह जाऊँ मैं, नहीं पा रहा समझ,
था घनघोर अन्धकार, सामने हरतरफ |
इतने में उजाले की एक किरण देख कर,
जो थी स्वच्छ, उज्वल और निर्मल |
विस्मित तो मैंने पूछा कौन आप?
इस गहरे अन्धकार,
वह बोला मैं तो वही, जिसकी थी तुम्हें तलाश |
कस्तूरी-मृग सा क्यों, भटक रहा इधर-उधर,
मैं तो सदा से तेरे ही हूँ अन्दर |
तेरा ही चैतन्य हूँ, तेरा ही आत्मप्रकाश,
रहता हूँ सदैव, तेरे ही मैं साथ |
खड़ा था मैं.............

       मज़हब
यह उसका, यह तेरा, यह मेरा घर |
अलग-अलग पर बने हुए हैं सब धरती पर |
आकाश सभी का एक, जो देखें झाँक कर |
हवा वही आती मेरे भी, जो उनके घर |
रोशन जो सूरज मेरे घर, वही रोशनी देता हर घर |
प्यास बुझाता वह उनकी भी, मुझे तृप्त करता है जो जल |
सब कुछ वही फिर भी लगता क्यों, हर एक घर अलग-अलग |
क्या पत्थर की दीवारें हैं, इतनी जबरदस्त ?

           तर्क
मैं तर्क नहीं किया करता, क्योंकि –
किसी भी तर्क का निष्कर्ष नहीं हुआ करता |
तर्क का आदि तर्क, तर्क का मध्य तर्क, तर्क का अन्त तर्क,
कोई हल नहीं हुआ करता |
तर्क से तर्क पैदा, तर्क से तर्क लड़ता, गिरता फिर उठता,
पर उसका कोई अन्त नहीं हुआ करता |
कल तुम जीते थे, आज मैं जीत गया,
खत्म नहीं होता तर्कों का सिलसिला |
तर्क प्याज के छिलकों सा बस उघड़ते ही जाता,
अन्दर कोई तथ्य नहीं हुआ करता |
तर्कों की तहों में चाहे जितना भी दबा लो सत्य का हीरा,
वह झूठ का पत्थर नहीं हुआ करता |
सत्य के सूरज को तर्क के बादल चाहे जितना भी छुपा लें,
उजाला अंधकार नहीं हुआ करता |
मैं तर्क..............

       अहम्
आसमान खाली है, मकान भी खाली है |
सिर्फ़ दीवारें हैं अहम् की, जो-
कर रखी हैं खड़ी हमनें इनके बीच |
जिस दिन मानव इन दीवारों की असलियत जान जाएगा,
उस दिन उन्हें सूखे पत्तों की तरह गिरा पाएगा |
और एक सीमित दायरा अनन्त में मिल जाएगा |

       जीवन – ज्योत
जीवन को क्यों कोस रहे, यह तो बस एक कोर कागज़,
मन की कलम से जो लिखते, दिखता वही है केवल इस पर |
जीवन तो बस एक परदा, एक दर्पण सा,
जिसमें प्रतिबिम्बित होती है, बस अपने ही मन की दशा |
जीवन तो एक जलप्रवाह, एक बहता दरिया,
सुख-दुःख जिसमें लहरों से हैं आते-जाते,
लेकिन वे तो कभी नहीं होते हैं दरिया |
जीवन जैसे एक प्रकाशित हो दीया,
अन्धकार दूर करने को, प्रभु ने जिसे हमको दिया |
करें प्रकाशित सत्य मार्ग, जब तक है हममें ज्योति,
फिर उसमें मिल जावें, जो है अनन्त की अखण्ड-ज्योति |

   जीवन का घटनाक्रम
ऋतुएँ क्रमबद्ध आती है ,जाती है,
सभी अपने-अपने रंग भी दिखाती हैं |
कभी पतझड़ तो कभी वसन्त के फूल भी खिलाती हैं |
जीवन को ऋतुओं सा परिवर्तित होने दो |
जीवन को सतत स्वतः ही चलने दो |
सागर से मिलन हेतु सब नदियाँ अपने पथ,
बहती ही रहती हैं, सदैव ही निरन्तर |
जीवन को नदियों सा अथक ही बहने दो |
जीवन को सतत............
घाटी मैदान, रास्ते, पर्वत,
गुलशन, जंगल और मरुस्थल |
सब धरती पर रूप अलग |
सबका अपना-अपना महत्व,
जीवन को धरती सा अनूठा होने दो |
जीवन को सतत..............
चमकीला गरम सूरज, चाँद शीतल,
टिमटिमाते तारे, झिलमिलाते नक्षत्र |
सतरंगी इन्द्रधनुष, सफ़ेद-काले, मिलते-बिछड़ते, बिखरते, बादल |
सभी आकाश पर रंग अलग-अलग |
जीवन को नभ सा बहुरंगी होने दो |
जीवन को सतत.............
पत्ते सब स्वतः ही हवा में हिलते हैं |
नदी-नाले स्वतः ही पानी ले बहते हैं |
फूलों की खुशबू पवन स्वतः फैलाती,
सूर्य की उर्जा को किरण स्वतः ही लाती |
जीवन का घटनाक्रम स्वतः ही घटने दो |
जीवन को सतत...........
जन्म हो या मरण,
तीज-त्यौहार, व्रत या लग्न |
अंधियारी-रात हो या पूनम का चाँद रोशन |
पर्व हो हर क्षण, हर पल उत्साह-उमंग |
जीवन का हर लम्हा, उत्सव होने दो |
जीवन को सतत..........

       शाश्वत – सत्य
जो मैं दिख रहा, वह ‘मैं’ नहीं,
जो मैं नहीं दिख रहा, वही ‘मैं’ हूँ |
जो दिख कर भी कई-कई आवरणों से ढका, वह मैं, ‘मैं’ नहीं |
को कई-कई आवरणों से ढका व अदृश्य होकर भी,
एकदम खुला, वही ‘मैं’ हूँ |
दिखाई देनेवाला मैं-मेरा का गुलाम,
स्वयं से अनभिज्ञ व अन्जान,
अन्तिम सत्य से डरता नश्वर मैं, ‘मैं’ नहीं |
‘मैं’ तो अजर, अमर, अविनाशी शाश्वत-सत्य हूँ |

  समाज – एक वृक्ष
निम्न-वर्ग होता जड़ों सा, जो हमेशा –
अंधेरों में पला, बड़ा, फैला गहरा |
मध्य-वर्ग होता स्तम्भ सा, जैसे तना,
जितना मजबूत उतना ही वृक्ष भी होता घना |
उच्च-वर्ग डालियों सा, फल, फूल, पत्तियों से लदा इठला रहा,
स्वयं को सब कुछ समझता, बाकी सभी झुठला रहा |
गिर गया यदि तना या उखड़ गई कभी जड़ें,
तो जिन्दा नहीं रह सकेंगी, गर्व से इठला रही, वे-
फली, फूली, पत्तियों से लदी डालियाँ |
लेकिन यदि वे दें सहारा, नई जड़ों को वट-वृक्ष बन,
जो बढ़ कर बन तना, मजबूत करती उन्हीं को |
और जिससे चहुँ-दिशा, बेबाध हो वह फैलता |
फिर और-और, नये-नये, फल-फूल खिलते जिसमें,
जिस पर कई पंछी-पखेरू करें बसेरा |

  विवाह – एक धार्मिक-संस्कार     
दो नदियों के प्रवाह के संगम सा,
प्यार भरे दिलों का मिलन विवाह कहलाता |
जिसमें एक, शक्कर सी मिठास बन,
दूसरे में लुप्त हो जाता |
जो करते हुए अपने कर्तव्य-कर्मों को,
सभी और मिठास भर, बढ़ता ही जाता |
उस सागर की ओर,
जो है उसके जीवन का परम लक्ष्य |
इसीलिये विवाह होता है, एक धार्मिक-संस्कार,
वरना रह जाता है वह एक मिश्रण सा,
साथ-साथ रहने का बस व्यवहार |

     विवाह – एक विवशता ?
मैंने बोया एक बीज प्यार का, जिससे उगा एक पौधा |
किया उसका अपने घर-आँगन, लालन-पालन-पोषण |
जो किसी और की थी धरोहर, बस मैंने दिया उसको संरक्षण |
धीरे-धीरे वह बड़ा हुआ, स्नेह भरा दिल का टुकड़ा,
जब पूर्ण-रूप से विकसित हो, तैयार हुआ फलने को,
तब शुरू किया ढूंढना, उसके लिए एक अच्छे माली को |
जब मिला कोई तो शुरू हुई, बहना दहेज की उल्टी गंगा,
जो बेबस बाप की मज़बूरी, और समाज की नाइंसाफी |
जो मिलन दिलों का नहीं रह गया, रह गई शुद्ध सौदेबाजी |
जो भावनात्मक हत्याचार रह गया, रहा नहीं धार्मिक-संस्कार |
क्या विवशता ही रह गया है अब विवाह ?

   शिक्षण – प्रशिक्षण
बारिश व नालों के इकट्ठे होते पानी से,
बनते ताल-तलैया, पोखर सा होता प्रशिक्षण |
स्वतः ही निकले कई-कई झरनों से भरते,
गहरे कुओं सा होता शिक्षण |
‘टू ब्रिंग आउट’ यही मतलब है शिक्षण का,
अंग्रेजी में जिसको कहते ‘एजुकेशन’|
केवल भौतिक आवश्यकताएँ ही,
पूरी कर सकता है प्रशिक्षण |
पर जीवन क्या? क्यों पाया इसको? कैसे जीना?
यह सिखलाता है केवल शिक्षण |
दोनों का सामंजस्य ही होता सच्चा जीवन |

         समाज
समाज,
होता समान आचार, विचार व व्यवहार वाले लोगों का,
एक झुण्ड, एक समूह, एक जमघट |
धनाड्य, सत्ताधीश, धर्म के ठेकेदार या नेता होते जिसके अग्रज |
वे ही उसके सर्वेसर्वा, वे ही उसके कर्णधार |
जो वे कहते, जो वे करते, वही नियम,
बाकी सब चलते उसी राह, अन्धे से कर आँख बन्द |
जिनका सच्चाई से दूर-दूर तक भी नहीं होता कोई सम्बन्ध |
जो नियम समाज के, चाहे सड़े-गले, तत्वहीन, वो हैं सच,
जो विचार व्यक्तिगत, अनुभव के, चाहे सच, पर गलत |
जिसने भी छोड़ भेड़चाल समाज की,
बनाया अपने अनुभव से एक सत-पथ |
उस युगपुरुष को तथाकथित समाज ने,
हर युग में मारा, दुत्कारा, अपमानित किया,
चाहे फिर वह कोई बुद्ध रहा हो या गेलीलियो या मसीहा |
माना समाज के मार्ग पर चलना सुविधाजनक,
सरल, लगता फूलों भरा,
व सत्य का मार्ग बहुत कठिन, काँटों भरा |
जिस पर स्वयं के ताबूत को ही उठा कर चलना पड़ता |
मगर सत्य को जानने के लिए ही, हमने पाया यह जीवन, 
तो लेना ही होगा हमें यह जोखिम |
चुकाना ही होगा उसका मूल्य, उसकी कीमत,
तभी हम हिरा बन पाएँगे |
वरना बस राह के एक पत्थर बन रह जाएँगे,
जिसका जीना क्या व मरना क्या |